ये लगभग १० साल पुरानी बात है। मेरी PhD शोध अपने अंतिम चरण में थी। ६ सालों की थकन और बैचेनी थी; साथ ही, एक मधुर आनंद की पुलक भी। ऊब बिल्कुल भी नहीं थी क्योंकि पढ़ना-पढ़ाना हमेशा मेरा प्रेम रहा है। अन्ततः, वो बहुप्रतीक्षित क्षण आ ही गया जब मैंने अपनी थीसिस का अंतिम वाक्य लिखकर पूर्ण विराम लगाया। एक असीम सुकून और प्रफुल्लता की फुहार सी पड़ी मेरे पूरे अस्तित्व पर! तभी मुझे अहसास हुआ कि ये सुख मातृत्व का सुख है, किसी को जन्म देने का सुख।
रचनात्मकता का मूल सुख मातृभाव से ओतप्रोत होता है। एक छोटी सी कृति भी, एक कविता, एक चित्र, एक कहानी, कोई नृत्य, एक संवाद बोल पाना या थोड़ा अभिनय कर पाना, हमें एक अनजानी पुलक से भर देता है। ये पुलक है सृजन की। इसकी तुलना किसी भी आनंद से नहीं की जा सकती।
कभी-कभी सोचता हूँ कि एक थीसिस की रचना का आनंद इतना है, तो जिस रचनाकार ने अखिल ब्रम्हांड को तराशा वो कैसे आनंद से भरा होगा!